चुप रह जाने के भी कुछ फायदे हैं

अजीत द्विवेदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व और उनकी राजनीति में कई चीजें एक्स्ट्रीम वाली हैं। जैसे कई बार लगता है कि वे बहुत बोलते हैं। उनकी पार्टी की ओर से कहा भी जाता है कि अब जाकर भारत को बोलने वाला प्रधानमंत्री मिला है। तो दूसरी ओर कई बार वे पूरी तरह से चुप हो जाते हैं। एकदम ही नहीं बोलते हैं। कायदे से दोनों के बीच की स्थिति होनी चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है। प्रधानमंत्री हर मंच से लंबे लंबे भाषण देते हैं। सरकारी कार्यक्रम हो, संसद का मंच हो या चुनावी सभा हो हर जगह उनको बोलना पसंद है। भारत में एक प्रधानमंत्री हुए थे पीवी नरसिंह राव, जिनको मौनी बाबा कहा जाता था। वे एकदम नहीं बोलते थे। उन्होंने चुप रह जाने को एक रणनीतिक हथियार बना लिया था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कई बार चुप रह जाना जवाब देने से बेहतर होता है।

अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी किताब ‘संसद के तीन दशकÓ में एक घटना का जिक्र किया है। जब वे पहली बार 1957 में लोकसभा पहुंचे थे तब वे बहुत कम बोलते थे। एक बार उनको पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि तुम बोलते नहीं हो नौजवान, तुमको बोलना चाहिए। तब वाजपेयी ने जवाब दिया था कि ‘बोलने के लिए सिर्फ वाणी की जरूरत होती है लेकिन चुप रहने के लिए वाणी और विवेक दोनों की जरूरत होती हैÓ। ज्यादा बोलने वाले सांसदों के सामने नेहरू कई दिन तक यह बात दोहराते रहे थे।

सो, चुप रहना कई बार विवेकशील फैसला होता है। पीवी नरसिंह राव की चुप्पी उसी श्रेणी में आती थी। लेकिन कई बार चुप्पी किसी समस्या या अपनी विफलता को अस्वीकार करने के लिए होती है। प्रधानमंत्री मोदी भी कई बार इसलिए चुप रह जाते हैं कि अगर बोलेंगे तो समस्या की मौजूदगी को स्वीकार करना होगा या अपनी विफलता स्वीकार करनी होगी। इसे कई घटनाओं के समय देखा जा सकता है। मिसाल के तौर पर प्रधानमंत्री किसानों के आंदोलन के समय एक साल तक चुप रहे थे। चीन की घुसपैठ और गलवान घाटी में भारत व चीनी सैनिकों की झड़प पर उन्होंने सिर्फ एक बयान दिया कि, न कोई घुसा है और न कोई घुस आया है। कोरोना महामारी के समय जब दूसरी लहर से देश में तबाही मची थी तब प्रधानमंत्री ने पश्चिम बंगाल की अपनी चुनावी रैलियां रद्द कीं और उसके बाद एकदम चुप हो गए। ठीक 20 दिन तक उन्होंने कुछ नहीं कहा और न कहीं दिखाई दिए। जब हालात सुधरने लगे तब जाकर प्रधानमंत्री के उच्चस्तरीय बैठक करने की खबर आई।

यही स्थिति मणिपुर की हिंसा के मामले में देखने को मिल रही है। मणिपुर में कुकी और मैती समुदाय के बीच तीन मई को हिंसा शुरू हुई थी। उस समय कर्नाटक में विधानसभा के चुनाव चल रहे थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की धुंआधार रैलियां हो रही थीं, रोड शो हो रहे थे। उसके बाद से पिछले करीब तीन महीने में प्रधानमंत्री ने कई राज्यों का दौरा किय और कई देशों का दौरा किया। कई कार्यक्रमों में वर्चुअल तरीके से शामिल हुए। हजारों करोड़ रुपए की परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया। यानी प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के लिए सब कुछ रूटीन में चलता रहा। सिर्फ मणिपुर पर कुछ नहीं बोले। वे निश्चित रूप से मणिपुर के हालात के बारे में जानकारी लेते रहे होंगे। यह भी संभव है कि उन्होंने हालात को काबू में करने के निर्देश भी दिए हों लेकिन तीन महीने में इस घटना पर कहा कुछ नहीं। हिंसा शुरू होने के 77 दिन बाद वे तब बोले, जब दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाने और उनके साथ यौन हिंसा करने का वीडियो वायरल हुआ। उसमें भी साढ़े आठ मिनट तक मीडिया को दिए बाइट में वे 36 सेकेंड मणिपुर पर बोले और फिर दो चुनावी राज्यों- राजस्थान और छत्तीसगढ़ का नाम लेकर सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सलाह दी कि वे अपने यहां कानून व्यवस्था मजबूत करें। इस तरह मणिपुर के पूरे मामले में एक नया ट्विस्ट आ गया। उस दिन से आज तक पूरी भाजपा विपक्षी पार्टियों को उनके राज्यों में हुई घटनाओं को लेकर कठघरे में खड़ा कर रही है।

राजनीतिक रूप से देखें तो चुप रहने की रणनीति के कई पहलू हैं। पहला, चुप रहिए और इंतजार कीजिए कि समस्या अपने आप खत्म हो जाए। ज्यादातर मामलों में ऐसा होता है क्योंकि ज्यादातर समस्याएं ट्रैफिक लाइट की तरह होती हैं। थोड़ इंतजार करने पर लाल बत्ती हरी होती ही है। लेकिन जब समस्या ट्रैफिक लाइट की तरह नहीं हो तब वह अपने आप समाप्त नहीं होती है। उससे निपटने के लिए गंभीर और सक्रिय प्रयास करने होते हैं। सो, कुछ मामलों में चुप रहने और इंतजार करने के फायदे हैं तो कुछ मामलों में देरी से यह बहुत नुकसानदेह हो जाता है, जैसा कि मणिपुर के मामले में हो रहा है। सरकार इंतजार करती रही और समस्या गहरी है।

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