कैसे हो ‘मेक इन इंडिया’ संभव?

अजीत द्विवेदी

मई 2014 में केंद्र में सरकार बनाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिन शुरुआती योजनाओं की घोषणा की थी और जिनको भारत की तकदीर व तस्वीर बदलने वाला बताया गया था उनमें से एक योजना ‘मेक इन इंडिया’ की थी। प्रधानमंत्री ने इसे 25 सितंबर 2014 को लांच किया था। यह भारत को विनिर्माण का केंद्र बनाने के लिए लांच की गई योजना थी। कारोबार सुगमता को लेकर जो भी कदम उठाए गए उनका मकसद इस योजना को सफल बनाना था। लेकिन अफसोस की बात है कि यह योजना टेकऑफ नहीं कर सकी। भारत विनिर्माण का केंद्र तो नहीं बन पाया उलटे घरेलू हालात ऐसे बने कि आईटी और आईटी आधारित सेवाओं का भी भारत केंद्र नहीं रहा।

‘मेक इन इंडिया’ योजना के तीन घोषित लक्ष्य थे। पहला, भारत के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण सेक्टर का हिस्सा 16 से बढ़ा कर 25 फीसदी करना। यह बहुत महत्वाकांक्षी लक्ष्य था, लेकिन जिस जोश-खरोश से यह योजना लांच हुई थी और इसकी जितनी बातें हो रही थीं, उससे यह लक्ष्य हासिल करना असंभव नहीं लग रहा था। दूसरा लक्ष्य था, विनिर्माण सेक्टर की विकास दर को 12 फीसदी तक ले जाना। यह लक्ष्य जीडीपी के आठ फीसदी से बढऩे के अनुमान के आधार पर तय हुआ था। तीसरा लक्ष्य था, विनिर्माण सेक्टर में 10 करोड़ लोगों को रोजगार दिलाना। ध्यान रहे विनिर्माण सेक्टर को सबसे ज्यादा रोजगार सघनता वाला सेक्टर माना जाता है। इन तीनों लक्ष्यों में एक संगतता दिख रही थी। अगर विनिर्माण सेक्टर की सालाना विकास दर 12 फीसदी होती तो निश्चित रूप से जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी बढ़ती और रोजगार के अवसर भी बढ़ते। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हो सका।

ऐसा क्यों नहीं हुआ, इसके कारण तलाशेंगे तो कई कारण मिल जाएंगे। कोरोना वायरस की महामारी को एक बड़ा कारण बता दिया जाएगा। लेकिन महामारी तो मार्च 2020 में आई, जबकि योजना उससे करीब छह साल पहले लांच हुई थी! असल में इस तरह की महत्वाकांक्षी योजना को सफल बनाने के लिए जिस किस्म के आक्रामक आर्थिक, सामाजिक व कानूनी सुधारों की जरूरत थी वह नहीं हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि जीडीपी में पहले, जहां विनिर्माण सेक्टर की हिस्सेदारी 16 फीसदी थी वह घट कर 13 फीसदी हो गई। सितंबर 2014 में योजना लांच होने के बाद से ही इसकी विकास दर कम होने लगी। और सबसे बुरा यह हुआ कि इस सेक्टर में रोजगार घट कर आधा रह गया। अशोका यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर इकोनॉमिक डाटा एंड एनालिसिस के मुताबिक विनिर्माण सेक्टर में रोजगार पांच करोड़ से घट कर 2.70 करोड़ रह गया। इसकी बजाय कृषि सेक्टर में ज्यादा लोगों को रोजगार मिलने लगा। सो, कुल मिला कर तीनों लक्ष्यों पर यह योजना असफल हो गई।

तभी सवाल है कि क्या यह मान लिया जाए ‘मेक इन इंडिया’ योजना भारत में सफल ही नहीं हो सकती है? ऐसा नहीं है। कोरोना वायरस की महामारी ने अगर भारत की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया है तो देर से ही सही लेकिन उसी की वजह से एक अवसर भी बन रहा है। इस महामारी के कारण चीन कई तरह की मुश्किलों में घिरा है। उसने अपनी जीरो कोविड पॉलिसी की वजह से पहले दो साल तो कोरोना को फैलने से रोका और अपनी अर्थव्यवस्था की गति भी कमोबेश बनाए रखी। उन दो सालों में भारत बहुत परेशान रहा लेकिन अब भारत में स्थिति सामान्य है, जबकि चीन मुश्किल में है। उसके 26 शहरों में लॉकडाउन लगा हुआ है और देश की करीब 21 करोड़ आबादी घरों में बंद है। चीन की वित्तीय राजधानी शंघाई करीब एक महीने से लॉकडाउन में है। चीन के अलग अलग शहरों में करीब 10 फीसदी मेट्रो सेवाएं बंद हैं। पिछले 75 साल में पहली बार ऐसा हुआ कि एक मई को चीन में मई दिवस के कार्यक्रम नहीं हुए।

चीन में संकट भयावह है और इसकी वजह से पूरी दुनिया में सप्लाई चेन प्रभावित हुई है। ध्यान रहे चीन दुनिया का मैन्यूफैक्चरिंग कैपिटल है और वहां संकट की वजह से दुनिया भर के देशों में जरूरी चीजों की आपूर्ति प्रभावित हुई है। इसके अलावा कोरोना वायरस की उत्पत्ति और उसके प्रसार को छिपाए रखने की वजह से भी चीन दुनिया की नजरों में बदनाम हुआ है। दुनिया के अनेक सभ्य देश चीन को कोरोना वायरस की महामारी फैलने का कारण मानते हैं और जांच की मांग करते रहे हैं। चीन के प्रति सद्भाव बिगडऩे का तीसरा कारण यूक्रेन पर रूस का हमला है। चीन ने यूक्रेन पर बर्बर हमले के बावजूद रूस का साथ दिया है। इसे लेकर अमेरिका और यूरोप से लेकर दुनिया के अनेक हिस्सों में चीन के प्रति गुस्सा बढ़ा है। ऐसे में यह भारत के लिए एक मौका हो सकता है।

दुनिया के देश चीन पर निर्भरता की वजह से कई तरह की समस्याएं झेल रहे हैं। चीन में पाबंदियों की वजह से निर्माण कार्य ठप्प है और जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति रूकी हुई है। सो, एक तरफ चीन को लेकर नैतिक बाधा है तो दूसरी ओर व्यावहारिक कठिनाइयां हैं। इन दोनों का मिला-जुला नतीजा यह हुआ है कि दुनिया के देश दूसरा विकल्प खोज रहे हैं। अगर उन्हें दूसरे देश से सस्ता और टिकाऊ उत्पाद मिलता है तो वे तुरंत मौका लपकेंगे। लेकिन उससे पहले भारत को मौका लपकना होगा। विनिर्माण सेक्टर और साथ साथ छोटे व मझोले उद्योगों को मजबूती देनी होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी हर विदेश यात्रा में दूसरे देशों के कारोबारियों को भारत आमंत्रित करते हैं लेकिन ऐसा लग रहा है कि यह पर्याप्त नहीं है।
भारत को इससे ज्यादा करने की जरूरत है। कारोबार शुरू करने की प्रक्रिया को और सुगम बनाना होगा, शुल्क के ढांचे में सुधार करना होगा, जरूरी श्रम सुधार लागू करने होंगे और छोटे व मझोले उद्योगों के लिए पर्याप्त कर्ज की व्यवस्था करनी होगी।

इसके अलावा सबसे जरूरी चीज है देश में शांति और सद्भाव का माहौल। सांप्रदायिक तनाव और हिंसा के माहौल में कारोबार नहीं फल-फूल सकता है। ऐसी स्थिति में न घरेलू कंपनियां अच्छा काम कर पाएंगी और न बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत आएंगी। भारत में कुछ विदेशी कंपनियों ने निवेश किया है और अपना कामकाज शुरू किया है, लेकिन भारत से ज्यादा बांग्लादेश, वियतनाम, फिलीपींस आदि देशों की ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का रूझान है। बहरहाल, अनेक कारणों से बने वैश्विक हालात में भारत के लिए जो मौका बना है, उसका फायदा उठाने के लिए भारत को त्वरित और तीव्र पहल करनी होगी।

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