असल मुद्दों पर हावी जाति और धर्म की सियासत

उत्तराखंड। विधानसभा चुनाव में दिन प्रतिदिन गर्मागर्मी बढ़ती जा रही है। चुनावी मुद्दों पर सियासत का पीपीपी मॉडल हावी होता जा रहा है। विकास से जुड़े पीपीपी मॉडल को लोग पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तौर जानते हैं। लेकिन सियासत का पीपीपी मॉडल झूठा प्रचार (प्रोपेगेंडा), ध्रुवीकरण (पोलराइजेशन) और बहुप्रचार (पापुलराइजेशन) के रूप में जाना जा रहा है। इनमें ताजा मामला मुस्लिम विवि को लेकर दिए गए एक बयान का है, जिसे लेकर भाजपा ने कांग्रेस पर हमला बोला।

बता दें की भाजपा पार्टी उस सरकारी आदेश को भी सामने ले आई, जिसमें समुदाय विशेष के लोगों के लिए जुमे के दिन अल्प अवकाश की सुविधा थी। इस आदेश के बहाने भाजपा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत पर धावा बोल दिया है। सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीरों को बदल कर वायरल किया जा रहा है। सियासी जानकारों की निगाह में ये हरीश रावत को टारगेट करने के साथ ही वोटों के ध्रुवीकरण का भी प्रयास है।

सच्चाई जो भी हो, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के बयान सियासत से अछूते नहीं रहे। पिछले दिनों उनका बयान आया कि कांग्रेस की सरकार बनने पर ब्राह्मण आयोग बनाया जाएगा। पूर्व सीएम की भावना एक जाति वर्ग के लिए कितनी ही तटस्थ क्यों न हो, लेकिन उनके इस बयान जात-पात की सियासत के तौर पर देखा गया।

सियासी जानकारों का मानना है कि सियासी दलों पर क्षेत्रवाद और जातिवाद की सियासत का इस कदर दबाव है कि उन्हें अपना नेतृत्व चुनते समय भी इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि कुमाऊं से यदि मुख्यमंत्री हैं या गढ़वाल से प्रदेश अध्यक्ष होना चाहिए। नेता प्रतिपक्ष यदि क्षत्रीय या जनजातीय वर्ग से हैं तो प्रदेश अध्यक्ष ब्राह्मण होना चाहिए। टिकट बंटवारे तक में राजनीतिक दलों का यह जातिवादी सियासत का चेहरा दिखाई दिया। भाजपा ने पौड़ी जिले में जब एक भी ब्राह्मण को टिकट नहीं दिया तो कोटद्वार से उसे ब्राह्मण चेहरे विधायक रितु खंडूड़ी को मैदान में उतारना पड़ा। जबकि प्रत्याशियों की पहली सूची विधायक रितु खंडूड़ी का टिकट काट दिया गया था।

कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों में कई काबिल दावेदार इसलिए टिकट की दौड़ में बाहर हो गए क्योंकि वे वोटों के जातीय समीकरण में फिट नहीं बैठ रहे थे। सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटीज फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल कहते हैं, सियासत के पीपीपी मॉडल के आगे चुनावी मुद्दे नेपथ्य में चले गए हैं।

घोषणापत्रों से क्यों नहीं होती प्रचार की शुरुआत
एसडीएफ के संस्थापक अनूप नौटियाल प्रश्न उठाते हैं कि चुनाव प्रचार के आगाज के समय ही राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र लेकर क्यों नहीं आते। मतदाताओं को इतना वक्त मिलना चाहिए कि वे घोषणापत्रों में किए गए वादों की परख कर सके। ऐसी गंभीरता सियासी दलों की ओर से नहीं दिखाई दे रही है।

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